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Monday, April 30, 2012

मजदूर दिवस या प्रतारणा दिवस

आर.एस.शर्मा ‘नागेश’

,बड़ी अजीब हो गई है दुनिया और अजीब हो गए हैं दुनिया के लोग। तमाशे करने मेें अब दुनिया वालों का कोई सानी नहीं रहा। इस वैज्ञानिक युग में, 21 वीं शताब्दी में हम चांद, मंगल, सूरज इत्यादि ग्रहों की गंभीरता से खोज-खबर लेने में जुटे हुए हैं परन्तु इसके बाद भी हम कोई न कोई अनोखा काम करने में पीछे नहीं हटते। साल मेें 365 दिन होते हैं और हर दिन किसी न किसी को समर्पित कर दिया है। कोई मातृ दिवस तो कोई पितृ दिवस। कभी महिला दिवस मनाया जाता है तो कभी नारी सुरक्षा दिवस इत्यादि-इत्यादि। कहने का भावार्थ यह है कि हर दिन के नाम से शगूफा बना हुआ है जो उस दिन के आने पर छोड़ दिया जाता है। 
ठीक इसी प्रकार 1 मई को मजदूर दिवस मानकर पूरी दुनिया में मजदूरों के प्रति श्र(ा जताई जाती है। इस दिन अलग-अलग देशों में, अलग-अलग प्रदेशों में ‘मजदूर-मजदूर भाई-भाई,’ ‘मजदूर एकता जिन्दाबाद’, ‘ आवाज दो हम एक है’, के नारों से आकाश गूंज जाया करता था। हर फैक्ट्री, हर औद्योगिक संस्थान इन नारों से अपनी एकता का परिचय मालिकों को देते थे। मजदूरों के प्रति सद्भावना दिखाते हुए विश्व मंच ने पहली मई को मजदूर दिवस घोषित कर दिया जिसका अभिप्राय मात्र मजदूर और मजदूर संगठनों में आपसी भाईचारा और मेलजोल बढ़ाने का उद्देश्य निहित था।
सच्चाई तो यह है कि भारतवर्ष में मजदूर दिवस मनाने की कोई भी परम्परा न कभी रही है और न है परन्तु दीवाली पर्व के ठीक अगले दिन विश्वकर्मा दिवस पर मजदूर तो क्या व्यापारी भी उस दिन छुट्टी करके अपने तराजू-बट्टै या इसके समान व्यापार में प्रयोग में लायी जाने वाली सामग्री कम्प्यूटर इत्यादि की पूजा करके उस दिन कोई काम नहीं करते। यदि देखा जाए तो यह मजदूर दिवस से बहुत बड़ा शांतिपूर्ण दिवस माना जा सकता है। श्रम शक्ति का देवता विश्वकर्मा ही माना जाता है परन्तु विदेशों में मजदूरों के मसीहा के नाम से जाने जाने वाले काल मार्क्स को इंगित करते हुए पाश्चात्य सभ्यता पहली मई को मजदूर दिवस के रुप में मनाती है और यही पाश्चात्य सभ्यता अब भारत समेत पूरे विश्व में अपनी जड़ें जमा चुकी है। 
मजदूर शब्द मुख्य घारा से अलग समझा जाने लगा है और उसे दया का पात्र बनाकर उससे सहानुभूति सी दर्शायी जाने लगी है मानो वह किसी के साथ उठने-बैठने लायक ही न हो। 
आज विश्व में मजदूर ज्यादा हैं और पूंजीपति कम फिर भी पूंजीपतियों का वर्चस्व है। इन पर मनमाने अत्याचार और शोषण कार्य धड़ल्ले से हो रहे हैं और हैरानी की बात यह है कि मजदूर वर्ग पर शोषण, अत्याचार, जबरदस्ती मजदूर संगठनों की मिली भगत से ही किया जा रहा है। यहां तक कि वेतन समझौतों में भी मजदूर संगठन प्रबंधन वर्ग से मिलकर मजदूर का शोषण करने में नहीं हिचकते। बैंकिग उद्योग में नवम्बर 1997 को हुए एक वेतन समझौते में प्रबंधन वर्ग और बैंक यूनियनों ने मंहगाई भत्ते दर का समावेश सेवानिवृत्त कर्मचारियों के साथ ऐसा कुछ किया जिससे सेवानिवृत्त कर्मचारियों को कुछ मिलने के बजाए बहुत कुछ खोना पड़ गया जो उनके हित के खिलाफ साबित हुआ। इस विषय पर कई मुकदमे अब भी चल रहे हैं। ऐसे में यह जरूरी लगता है कि दाल में कुछ न कुछ काला जरूर है। अब कितना काला है यह तो कहना मुश्किल है परन्तु कुछ न कुछ अवश्य है। कहीं कहीं तो मजदूर संगठन अपने निजी स्वार्थ के लिए समूची दाल को ही काला करने में नहीं हिचकते। 
मजदूर वर्ग को मई दिवस पर किसी न किसी घोषणा के तहत राहत देने का लॉलीपाप देकर शांत करा दिया जाता है। बदलती हुई परिस्थितियों में मजदूर वर्ग भी बेबस है और जो मिल जाता है उसी में संतोष कर रहा है। कभी समय था कि पहली मई यानि मजदूर दिवस पर रैलियों द्वारा मजदूर अपनी एकता प्रदर्शन से अपने-अपने शहरों को हिला दिया करते थे परन्तु अब ‘मजदूर एकता जिन्दाबाद’ के गर्मजोशी के नारे बहुत ही कम सुनाई देते हैं। नारा लगाने वाले या नारा लगाने में मशहूर मजदूर रैलियों में जाने के बदले कुछ न कुछ ध्ंाधा करके तसल्ली कर लेते हैं। अधिकांश मजदूर तो अपनी-अपनी फैक्ट्रियों के बाहर या किसी पार्किंग के पास रिक्शा चलाते हुए मिल जायेंगे। मुम्बई के कपड़ा उद्योग ने पिछले दशकों में हुई हड़तालों और तालाबंदियों ने मजदूर वर्ग को तोड़कर रख दिया है। इनकी समस्यायों के निदान के प्रति सरकारी गैर जिम्मेदाराना रवैया इसका मुख्य कारण रहा है। दिल्ली, मुम्बई, अहमदाबाद, चेन्नई जैसे महानगरों के अलावा कई अन्य राज्यों में भी मजदूरों के प्रति सरकारी उदासीनता व्यापक रूप में देखने को आई है। 
मजदूर यूनियनों के पदाधिकारी सिवाय अपना निजी स्वार्थ सि( करने के और कुछ नहीं कर रहे हैं। और तो और अमरीका जैसा सशक्त एवं बलशाली राष्ट्र जिस कदर मुल्कों पर आने-बहाने तबाही मचा रहा है उससे इनका शोषण बढ़ता ही जा रहा है। वियतनाम, अफगानिस्तान और अब इराक पर हुए अमरीकी अत्याचारों ने वहां के मजदूर वर्ग को दाने-दाने को मोहताज बना दिया है। अगर मजदूर दिवस के प्रति ऐसी आस्था बरकरार रही तो कोई बड़ी बात नहीं कि आने वाले समय में 1 मई को कैलेंडरों में मजदूर प्रतारणा दिवस के नाम पर इस दिन को अंर्तराष्ट्रीय स्तर पर याद किया जाने लगेगा। चंद रुपयों का लालच दिखाकर मजदूर नेता मजदूरों का जिस प्रकार शोषण कर रहे हैं, भेड़-बकरियों की तरह इक्ट्ठे करके अपने स्वार्थपूर्ति में जुटे रहते हैं उससे मजदूरों को कोई लाभ पहुंचे या न पहुंचे उनका शोषण अवश्य ही किया जा रहा है।

अगर शत-प्रतिशत मतदान होते तो.....

                                                        अगर शत-प्रतिशत मतदान होते तो.....

                                                        आर.एस.शर्मा ‘नागेश’

अब से कुछ वर्ष पूर्व तक होने वाले किसी भी चुनाव में मत प्रतिशत का कम होना राजनैतिक पार्टियों के लिए सुखद साबित होता रहा है। चुनावों में वोटरों के उसी चुनावी रुझान के प्रतिशत के आधार पर कभी भाजपा तो कभी कांग्रेस या अन्य विशेष पार्टी ही बहुमत से विजयी होती रही है। कारण स्पष्ट है कि उसी प्रतिशत होने वाले मतदाताओं में मतदाता अपनी-अपनी दलीय निष्ठा के तहत अपने दल को समर्थन देकर जिताने की कोशिश करते हैं। अन्य वोटरांे के कुछ प्रतिशत जमा और घटा का अंतर बड़े-बड़े उल्टफेर करने में सहायक सि( होता रहा है। हां! इसमें कभी-कभी चलने वाली किसी भी प्रकार की सहानुभूति लहर भी कारगर सि( होती रही है मगर वह भी बहुत कम।
पिछले कुछ अरसे से मतदान का प्रतिशत बढ़ने लग गया है। यह बढ़ने वाला मत प्रतिशत किसी दबाव के अंतर्गत सामने नहीं आ रहा बल्कि युवा पीढ़ी ने लोकतंत्र की परिभाषा को साकार करने के लिए पहल करनी शुरु कर दी है। यह जो बड़ा हुआ मतदान है यह न कांग्रेस के लिए होता है और न ही भाजपा या किसी अन्य दल के लिए बल्कि यह मतदान ऐसे विशेष मतदाताओं के जहन में एक सवाल खड़ा करता है कि उम्मीदवार का स्तर क्या है? क्या वह पढ़ा-लिखा है, क्या वह समाज के हित में काम करेगा? क्या इसने चुनावी टिकट लेते समय कुछ ऐसा अनैतिक कार्य तो नहीं किया जिसका उसने बाद में लाभ उठाना है इत्यादि-इत्यादि। जब ऐसे मतदाता इस प्रकार की मानसिकता को लेकर वोट देने लग जाते हैं तब तो उनसे कोई भी राष्ट्रीय और राज्यीय दल चारों खाने चित्त हो सकता है। आज स्वतंत्र उम्मीदवार ज्यादा जीतने लग गए हैं। कारण स्पष्ट है कि मतदाताओं का बदलता रुझान और लीक से हटकर वोट देने वालों की दिनोंदिन बढ़ती संख्या।
अभी तो यह कुछ प्रतिशत होने वाले मतदान के परिणाम हैं। सच्चाई यह है कि न चुनाव आयोग और न ही सरकार मतदान के प्रति कभी गंभीर थी और न कभी होगी सिवाय चुनावी औपचारिकता निभाने के, जो आज तक निभाई जा रही है। सरकार और चुनाव आयोग इस सत्य को भली-भांति जानता है कि यदि शत-प्रतिशत मतदान अनिवार्य कर दिया जाए तो राष्ट्रीय दल दिखाई भी नहीं देंगे क्योंकि मौजूदा मतदाताओं का प्रतिशत केवल वर्तमान राष्ट्रीय और राज्यीय दलों को जिताने भर से जुड़ा हुआ है। आज अगर शत-प्रतिशत मतदान की अनिवार्यता बन जाती है तो मतदाताआंे का नया प्रतिशत जो कि पुराने प्रतिशत से ज्यादा होगा। पुरानी चुनावी कार्यशैली और परिणामों पर भारी पड़कर लोकतंत्र के निर्माण में कारगर सि( हो जाएगा। यदि ऐसा हुआ तो वर्तमान दलों के सारे मंसूबे, सारे सपने धरे के धरे रह जायेंगे। कुछ समय बाद नए दल बनेंगे जो राष्ट्रीयता, निष्ठा और समाज सेवा के पर्याय सि( हो सकते हैं। भ्रष्टाचार मुक्त भारत के निर्माण में सहायक सि( हो सकते हैं और फिर पुराने दागियों, बागियों को सबक सिखा सकते हैं। चुनावी टिकट प्राप्त करने में लाखों- करोड़ों रुपए देने वाले से समाज सेवा की कभी अपेक्षा नहीं की जा सकती। ऐसे उम्मीदवार 10 लाख लगाकर एक करोड़ कमाने की जुगत में रहेंगे। मतदान का प्रतिशत बढ़ जाने पर स्वतंत्र उम्मीदवारों की संख्या बढ़ जाएगी। हो सकता है कुछ समय तक उनमें आपसी एका न होने पर समस्याएं भी उत्पन्न हों परन्तु बाद में वही सुराज की स्थापना के लिए सहायक सि( हो सकते हैं। आज सख्त जरुरत है शत-प्रतिशत मतदान व्यवस्था लागू करने की। उन मतदाताओं के खिलाफ कड़ी कार्यवाही करने की, जुर्माना लगाने की जो मतदान में हिस्सा नहीं लेते, भले ही इसका कारण कुछ भी रहे।

Saturday, June 11, 2011

व्यवस्था परिवर्तन के दंश झेलता भारत


400,000000,0000000 रुपये विदेशी बैंकों में भारतीय  धन पड़ा सड़ रहा है और भारतीय मुद्रा होने के बावजूद भी  उसकी उपयोगिता भारत के लिए कुछ भी नहीं। यदि यही धन भारत में वापिस आ जाए तो कल्पना करना ही अचंभित कर सकता है कि दुनिया में भारतवर्ष कितनी बड़ी आर्थिक शक्ति बन सकता है। 125,0000000 जनसंख्या वाले देश भारत का यदि 400 लाख करोड़ धन प्रचलन से बाहर हो, बेकार कर दिया गया हो, उसको वापिस लाने के प्रयास भी कभी न किए जा रहे हों तो इस गैर जिम्मेदाराना आचरण के लिए किसे दोषी माना जा सकता है, जनता को या सरकार को। सरकार इस राशि को लाने में अनिच्छुक है और यदि कुछ राष्ट्र भक्त एकजुट होकर सरकार पर इसको वापिस मंगवाने और उसे राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित करने के लिए प्रयास करते हैं तो उन्हें सरकारी तौर पर कुचलने-बदनाम करने का प्रयास शुरू हो जाता है। 
अन्ना हजारे ने देश में बढ़ते भ्रष्टाचार के प्रति विरोध का  अलख जगाया, सरकार घबरा गई। बाबा रामदेव ने 400 लाख करोड़ रुपए का विदेशों मंे सड़ रहा काला धन देश में वापिस मंगवाने के लिए मुहिम छेड़ा, आंदोलन प्रारंभ किया तो सरकार परेशान हो गई। आखिर अन्ना और रामदेव के इन प्रयासों से अन्ना और रामदेव को क्या व्यक्तिगत लाभ मिल सकता है। थोड़ी शोहरत, लोकप्रियता, नेकनामी बस और कुछ नहीं। यदि इस कीमत पर देश और देशवासियों को अकूत सम्पदा वापिस पाने और भविष्य में जनलोकपाल बिल द्वारा भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में सफलता प्राप्त होती है तो देश के कर्णधारों को इनके प्रयासों की सराहना करनी चाहिए थी, उनके साथ सहयोग करते हुए उनके द्वारा देशहित में उठाए गए कदमों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना चाहिए था। आखिर इन नेक कामों में अड़चनें क्यों डल रही हैं। यह सत्य है कि देशवासी मूर्ख नहीं हैं परन्तु उन्हें मूर्ख समझकर बहलाया-फुसलाया जा रहा है जो एक सीमा तक ही फलदायी हो सकता है। 
बाबा रामदेव का रामलीला मैदान में आंदोलन नितांत शांतिप्रिय था। सरकार और बाबा रामदेव के अंदर क्या सांठ-गांठ थी इससे जनता को कुछ ज्यादा लेना-देना नहीं है। भले ही अन्ना और रामदेव के मुद्दे एक हों और विरोध स्वर अलग-अलग, उससे भी जनता को कोई सरोकार नहीं। जनता को यदि कोई सरोकार है तो वह मात्र इतना कि वे भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों से आज़िज आ चुकी है। उन्हें समाप्त करना अब आवश्यक बन गया है। इसके लिए यदि कोई भी सकारात्मक प्रयास करने की कोशिश करेगा तो जनता उसके साथ जुड़ती चली जाएगी। अन्ना के जन लोकपाल बिल मामले में जो हो रहा है, जनता सब जानती है। सिर्फ सही समय का इंतजार कर रही है। रामलीला ग्रांउड में अंधेरी रात में जो हुआ उसे भी न केवल देश की जनता ने देखा बल्कि सुप्रीम कोर्ट ने भी संज्ञान में लिया और आवश्यक कार्यवाही शुरू कर दी। 
इस सरकार की कार्यशैली, नीति और व्यवस्था पिछले दो सालों में खतरनाक स्तर और देश विरोधी साबित हो रही हैं। लाखों-करोड़ों के घोटाले सामने आए हैं। अनेक बड़े-बड़े नेता  आज भी घोटालों में लिप्त हैं, मुकदमों में फंसे हुए हैं। यह अलग बात है कि नेताआंे को शायद उड़न छू होने का वरदान  मिला हुआ है इसलिए कोई भी सजा नहीं पाता। मुकदमों को सालों-साल लग जाते हैं और परिणाम शून्य। शिबू सोरेन जैसा नेता आजीवन कारावास की सजा पाने के बावजूद भी बहाल होकर मुख्यमंत्री बन जाता है परन्तु भूखे ;अनशन परद्ध और सोए हुए बाबा जी के सहयोगी आंदोलनकारियों पर रात के अंधेरे में लाठीचार्ज और गोलियां चला दी जाती हैं जबकि वह आंदोलन कुछ घंटे पहले ही शांतिपूर्वक रुप से अस्तित्व में था। इस पर तुर्रा यह कि सरकार इसे अनुचित नहीं मानती और की गई कार्यवाही को सही ठहराती है। 
देशवासी पुरानी सड़ी-गली व्यवस्था से तंग आ चुके हैं, उसे बदलने पर उतारु हैं तो उसमें रुकावट क्यों? व्यवस्था परिवर्तन के जो और जिस प्रकार के दंश आज देश और देशवासी झेल रहे हैं आने वाले समय में सुखद परिणामों के द्योतक नहीं माने जा सकते। 
शक्ति टाइम्स, दिल्ली साप्ताहिक  अंक 24, 12-18 जून 2011 में  संपादकीय प्रकाशित

देश से काला ध्न, अनैतिकता, भ्रष्टाचार, मनमानियां मिटाने के लिए
चन्द्रगुप्त की खोज मंे जुटे चाणक्य बाबा

आर.एस.शर्मा

दिल्ली, भारत विश्व का एक सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है जहां किसी भी विषय पर अपने विचार रखने आजादी ही आजादी है। बाबा रामदेव भी देश की इस लोकतांत्रिक परम्परा का सही उपयोग करने में जुटे हुए हैं। यदि देशहित में कुछ है तो फिर तो बोलने वाले के साथ काफिला भी जुड़ जाता है और कुछ-कुछ ऐसा ही बाबा रामदेव के साथ हो रहा है। योग गुरु के नाम से अपार प्रसि(ि और शिष्य प्राप्त करने के बाद अब बाबाजी ने देश सुधार करने का बीड़ा भी उठा लिया है। भ्रष्टाचार, काला धन, अनैतिकता और प्रशासनिक लापरवाहियों और मनमानियों के विरोध में जिस प्रकार से बाबाजी ने भारत स्वाभिमान संस्था बनाई है उसको देखते हुए यही लग रहा है कि आज वह राष्ट्रहित में चाणक्य की भूमिका निभाने के लिए मैदान में कूद गए हैं। बस जरुरत है तो एक चन्द्रगुप्त की जो इनके द्वारा चलाई जाने वाली परम्परा का सही प्रकार से उपयोग और उसका निर्वाह कर सके। चाणक्य ने तो राजा घनानंद द्वारा किए गए अपमान का बदला लेने के लिए कमर कसी थी परन्तु वर्तमान में आज घनानंदों की कमी नहीं है जो हर पल देश की जनता का अपमान के साथ-साथ उनकी भावनाओं के साथ भी खेलने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे। अक्सर नेताओं के वादे खोखले और भोथले सि( हुए है। चुनावों में किए गए वादे चुनाव जीतने के बाद अक्सर याद नहीं रहते नतीजतन आज जो देश में हो रहा है वह जनता के साथ की गई वादा खिलाफियांे का परिणाम के सिवा कुछ नहीं। कुछ ही महीनों में कॉमनवैल्थ गेम्स घोटाले, 2 जी स्पेक्ट्रम, एस बैंड घोटालों ने सरकार की पोल खोल दी है। इस पर हसन अली के मामलेे में अदालत की फटकारें बाबा रामदेव की राजनैतिक लड़ाई को जारी रखने के लिए बल दे रही है। सच्चाई तो यही है कि देश ने हर प्रकार का सरकारी रंग देखा है परन्तु अफसोस है कि कसौटी पर कोई भी खरा नहीं उतरा। क्या भाजपा तो क्या कांग्रेस और क्या गठबंधन सरकारें। सभी अपनी-अपनी भूमिका निभाने में फेल हो चुके है। ऐसे में यदि आज एक योगी और संत देश को भंवर से निकालने के लिए अपनी कटिब(ता एवं प्रतिब(ता दिखाने के लिए आगे बढ़ रहा है तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए। चाणक्य बने बाबा को देशहित के लिए आज नहीं तो कल कोई न कोई तो चन्द्रगुप्त मिल ही जाएगा।
शक्ति टाइम्स दिल्ली साप्ताहिक अंक 11, 13-19 मार्च 2011 में प्रकाशित
शिष्टाचार में बदलता आज भ्रष्टाचार

कभी देश के भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी ने अपने एक बयान में कुछ ऐसा ही कहा था कि विभिन्न योजनाओं में खर्च होने वाला प्रत्येक रुपए का मात्र 15 पैसे ही अपने लक्ष्य तक पहुंचता है बाकी सब इधर-उधर ही बंट जाते हैं। यह लगभग एक दशक पुरानी बात है। यदि उस समय यह बात सच थी तो आज तो एक रुपये में से मात्र 5-7 पैसे ही अपने लक्ष्य तक पहुंचते होंगे बाकी सब इधर-उधर हो जाते होंगे। सच्चाई यह है कि आज से कुछ दशक पूर्व जिसे देश और समाज में भ्रष्टाचार का नाम दिया जाता था अब वह शिष्टाचार में बदल चुका है। पहले भ्रष्टाचार एक बुराई के तौर पर बुरी निगाहों से देखा जाता था मानो कोई आपराधिक कार्य हो और नैतिकता के विरु( उठाया गया कोई अनैतिक कार्य हो परन्तु अब वही अनैतिकता की परिभाषा काफी हद तक बदल गई है और इसे बदलने में मुख्यतः सरकारी तंत्र का बहुत बड़ा हाथ है। कानून कुछ रुपए रिश्वत लेने या देने वाले के खिलाफ सजा भी मुकर्रर कर देता है परन्तु लाखांे-करोड़ों हजम करने वाले बड़ी सफाई और खूबसूरती से बच जाते हैं। बड़े-बड़े नामी-गरामी नेताओं और मंत्रियों पर तो कानून भी हाथ डालने से डरता है। वह शायद इसलिए डरता है कि उसमंे उलझने से कहीं उनके ऊपर दाग न लग जाए या उनके हाथ काले न हो जाएं। पहले भ्रष्टाचारियों को हीन भावना और बुराई की निगाहों से देखा जाता था परन्तु अब पैसे की माया इतनी बढ़ गई है कि उन्हें सम्मान की निगाहों से देखा जाने लगा है। भ्रष्टाचारी भी निगाहें झुकाकर चलने के बदले शान से सिर उठाकर चलने में गौरव समझते हैं मानो शिष्टाचारियों को चिढ़ा रहे हों कि हम यह हैं और तुम क्या हो?
आज भ्रष्ट जाने वाला आचरण शिष्ट बनता जा रहा है। भ्रष्टाचार की आधुनिक परिभाषा अब शिष्टाचार के नाम पर लेन-देन और घोटाले बन गए हैं। करोड़ों-लाखों की रकमें डकारने के बाद भी भ्रष्टाचारी सीनाजोरी दिखाने में बाज नहीं आते। यदि उन्हें लगता है कि उन पर किसी प्रकार की आंच आने वाली है तो तत्काल ही ऐसे भ्रष्टाचारी मामले को उलझाने के लिए कुछ ऐसे लोगांे को फंसाने की कोशिश करते हैं जिनका भ्रष्टाचार के साथ कुछ भी लेना-देना नहीं है।
मौजूदा हालातों में 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में मुख्य आरोपी ए.राजा की इस घोटाले में संलिप्पता किसी से छुपी नहीं है। यह घोटाला आज के समय की सुर्खियां बन चुका है। सीबीआई को बड़े ही पापड़ बेलने पड़े तब ए.राजा पर कोई कार्यवाही हो सकी। मजबूरियां कुछ भी रही हों परन्तु सच्चाई तो यही है कि 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले में सरकार को 1,76000 करोड़ से भी ज्यादा का चूना लग चुका है। अभी पूरी आंकड़े सामने नहीं आए, सच्चाई चरमसीमा पर नहीं पहुंची कि सरकार के एक मंत्री राजा के बचाव में सीएजी रिर्पोट को भी झूठा साबित करने में तुल गए। परोक्ष में उन्होंने भी इस सच्चाई को जनता में माना कि इस घोटाले में सरकार को कई हजार करोड़ का चूना लगा है।
भ्रष्टाचार कहां नहीं है। आज देश में भ्रष्टाचार ही भ्रष्टाचार फैला हुआ है। जितनी भी सरकारी योजनाएं जनहित के लिए अमल में आयी हैं उनमें भ्रष्टाचार ही भ्रष्टाचार सामने आया है। मनरेगा हो या फिर बीआरईजीएस, लाडली हो या कोई अन्य, सभी में
योजनाओं का लाभ उठाने वालों को कुछ न कुछ प्रतिशत का चढ़ावा चुकाना ही पड़ता है। यही कुछ प्रतिशत एक से दूसरी जगह तक और दूसरी से तीसरी और ऐसे ही क्रमशः आगे बढ़ते-बढ़ते 7 प्रतिशत का चढ़ावा बहुत आगे बढ़कर भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है। आए दिन जनहित में नई-नई योजनाएं सरकार अमल में लाने में जुटी हुई है परन्तु जनहित में उनका उपयोग कम होता है और भ्रष्टाचारियों की जेबें गर्म करने में सुविधाओं पर खर्च किया जाने वाला लगभग 50 प्रतिशत धन खर्च हो जाता है। योजनाएं बनाने से पहले उनके अमल पर जब तक पारदर्शी खाका नहीं बनेगा तब तक उन योजनाओं का सही लाभ नहीं उठाया जा सकेगा। भ्रष्टाचार से शिष्टाचार के मुकाम तक पहुंचने वाला आचार, व्यवहार दुराचार में बदलता रहेगा।
शक्ति टाइम्स दिल्ली साप्ताहिक के अंक 8, 20-26 फरवरी 2011 में प्रकाशित 

Wednesday, January 19, 2011

भागीदारी कार्यक्रम के अंतर्गत जनता को घटिया आटा बेचती दिल्ली सरकार

भागीदारी कार्यक्रम के अंतर्गत जनता को घटिया आटा बेचती दिल्ली सरकार


दिल्ली, दिल्ली सरकार की भागीदारी योजना के अंतर्गत गरीबों में सस्ते दामों पर बेचे जाने की राजधानी में सर्वत्र प्रशंसा हुई थी। प्रारंभ में दिल्ली फ्लोर मिल्स द्वारा राजधानी के विभिन्न क्षेत्रों में बेचे जाने वाला यह आटा बहुत अच्छी क्वालिटी का था और इसकी मांग भी बहुत बढ़ गई थी परन्तु अब जरुरत से ज्यादा घटिया आटा भागीदारी कार्यक्रम के अंतर्गत खूबसूरत पैकिंग में ऐसे बेचा जा रहा है मानो बहुत अच्छी क्वालिटी का हो। पहले शिकायत करने पर फ्लोर मिल्स का अधिकारी तुरन्त शिकायत को दूर करने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे परन्तु अब फोन करने पर मात्र औपचारिकता दिखाने लग गए हैं। सप्लाई वैन से लिया गया आटा ;पैक मेंद्ध जब खुलता है तो कुछ दिनों के बाद ही वह खराब होने लग जाता है। गुच्छे बनने लग जाते हैं और आटे में कीड़े पैदा हो जाते हैं। लगभग दो-तीन किलो ऐसे ही आटे का नमूना शक्ति टाइम्स के प्रतिनिधि द्वारा फ्लोर मिल्स के परिसर में उनके अधिकारियों को दिखाया तो इसके प्रति उनकी बेरुखी हैरान करने वाली थी मानो कहा जा रहा हो यह तो चलता रहेगा। इस आटे का नमूना मुख्यमंत्री दिल्ली सरकार एवं अन्य संबंधित विभागों के पास शक्ति टाइम्स द्वारा जांच के लिए इस समाचार पत्र के साथ आवश्यक कार्यवाही के लिए इस उद्देश्य से भेजा जा रहा है ताकि इस पर आवश्यक कार्यवाही हो और इसका उपयोग करने वाले प्रत्येक वर्ग के मानव के स्वास्थ्य को किसी प्रकार की हानि न पहुंचा सके

सरकार यही चाहती है जनता उलझी रहे

                   सरकार यही चाहती है जनता उलझी रहे
            निरकंुश मंहगाई, बढ़ते भ्रष्टाचार और घोटाले, मनमाने टैक्स इत्यादि से लुटती रहे जनता
                          आर.एस.शर्मा ‘नागेश’
दिल्ली, जब रोम जल रहा था तो रोम का राजा नीरो अपने महल में चैन की बंसी बजाने में जुटा हुआ था। कमोबेश यही हाल मौजूदा सरकार का भी लग रहा है। देश में भ्रष्टाचार लपलपा रहा है, घोटाले दर घोटाले हो रहे हैं, मंहगाई डायन खाए जात है, इसके बावजूद भी जनता पर कोई न कोई टैक्स या मूल्य वृ(ि थोप दी जाती है। बिजली से ज्यादा मंहगा पानी कर दिया है फिर भी पीने को पानी नहीं। तेल मंहगा इसलिए कि उस पर टैक्स ही टैक्स लगे हुए हैं। जनता के पास खाने को, पीने को, पहनने को, रहने को कुछ बचे या न बचे, इसकी फिक्र शायद आज सरकार को नहीं रही। मगर निरकुंश मंहगाई, बढ़ते भ्रष्टाचार और घोटाले, मनमाने टैक्स इत्यादि से लुटती रहे जनता शायद सरकार यही चाहती है कि जनता जितनी उलझी रहेगी उतना सरकार के मजबूत होने का मुख्य कारण है।
वास्तव में आज जनता को ऐसा लगने लग गया है कि डायन मंहगाई नहीं सरकार ही बन गई है जो जनता को  बचाने के बदले निगलने में अपना हित बेहतर समझने लग गई है। यदि ऐसा न होता तो चुनावों में भारतीय वोटरों द्वारा दिए गए वोटों की बदौलत चुनी हुई भारत सरकार जनता के साथ ऐसा अन्याय न होने देती।  देश में गृहमंत्री भी है और कृषि मंत्री भी, कानून भी है, कानून मंत्री भी, पुलिस भी है, थाने भी हैं और प्रशासन भी है, इनके साथ साथ भरा-पूरा समृ( प्रशासन भी है। यदि इनके रहते हुए भी जनता परेशानियों को झेलने पर मजबूर हो जाए तो सिवाय इसके कि सरकार ही डायन है न कि कुछ अन्य जिससे जनता परेशान हो रही है। यदि सरकार सक्षम है, एकजुट है, भले ही गठबंधन की हो तो किसी की क्या मजाल है जो जमाखोरी कर सके, घोटाले कर सके, भ्रष्टाचार में लिप्त हो सके। हर साल विभिन्न टैक्स् स्त्रोतों  से अरबों रुपए का राजस्व इक्ट्ठा करने वाली सरकार भी यदि मंहगाई, घोटाले, भ्रष्टाचार रोकने में सफल नहीं है तो ऐसी सरकार की देश को क्या जरुरत?
यहां किस मुद्दे की बात करें क्योंकि हर मुद्दा अपने आप में एक डायन बनकर जनता को निगलने में जुटा हुआ है। मंहगाई इतनी बढ़ चुकी है कि आम आदमी का गुजर-बसर करना मुश्किल होने लग गया है। यहां प्याज की बात नहीं करते क्योंकि प्याज के साथ-साथ आज हर खाने-पीने की चीज चाहे वह दाल हो या आटा, चीनी हो या सब्जी, सब कुछ इतना मंहगा हो चुका है कि जीना बेहाल होने लग गया है। जनता चूंकि अपने आप में उलझी हुई है इसलिए घोटाले और भ्रष्टाचारों के बारे में सोच भी नहीं सकती और यही सरकार की मंशा है कि जनता उलझी रहे और इसके अलावा कुछ सोच ही न सके।
बिजली की अनाप-शनाप मूल्य वृ(ि को दिल्ली की जनता अभी भूली नहीं कि दिल्ली जल बोर्ड दिल्ली की जनता को बिना समुचित पानी दिए इतने भारी-भरकम बिल भेजने पर उतारु हो गया है जिसका अंदाजा केवल उपभोक्ता ही लगा सकता है। आम आदमी का बिजली का बिल इतना ज्यादा शायद नहीं होगा जितना कि उसका पानी का बिल आने लग गया है। बिलों के पीछे दिए गए नम्बरों पर यदि कोई कुछ शंका  मिटाना चाहता है तो अधिकारी टेलीफोन ही नहीं उठाते। आम आदमी सैंकड़ों-हजारों की विभिन्न सरकारी मदों की अदायगी में जुटा हुआ है और नेता हजारों-करोड़ के घोटाले और भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। संसद की कैंटीन में सब कुछ सस्ता है और बाहर सब कुछ पहुंच से बाहर। यदि संसद की कैंटीन में उपलब्ध होने वाला खाना आम जनता को मिलने लग जाए तो जनता मंहगाई को भूल जाएगी।
इससे पहले राजग की सरकार थी और वह भी कई पार्टियों के साथ गठबंधन सरकार थी परन्तु इतनी मंहगाई कभी नहीं हुई जितनी यूपीए सरकार के समय में देखी जा रही है। यूपीए सरकार का हर कोई विशिष्ट व्यक्ति अपनी-अपनी रौ में बह रहा है। विधायक हो या सांसद बेतहाशा भत्ते बढ़ाने में जुटा हुआ है। जनता की किसी को कोई फिक्र नहीं। कांग्रेस अपने आप में उलझी है और गठबंधन अपने आप में। मंहगाई रोकने में गठबंधन भारी पड़ रहा है। राहुल के बयान भूचाल मचा रहे हैं। सरकार का विरोध  बढ़ता जा रहा है। यदि यही हाल रहा और जो चल रहा है वह निरंकुश चलता  रहा तो यकीनन  आगामी चुनावों में कांग्रेस समेत यूपीए को भारी क्षति उठानी पड़ सकती है।

शक्ति टाइम्स दिल्ली साप्ताहिक अंक-03 16 जनवरी-22 जनवरी 2011