मजदूर दिवस या प्रतारणा दिवस
आर.एस.शर्मा ‘नागेश’
,बड़ी अजीब हो गई है दुनिया और अजीब हो गए हैं दुनिया के लोग। तमाशे करने मेें अब दुनिया वालों का कोई सानी नहीं रहा। इस वैज्ञानिक युग में, 21 वीं शताब्दी में हम चांद, मंगल, सूरज इत्यादि ग्रहों की गंभीरता से खोज-खबर लेने में जुटे हुए हैं परन्तु इसके बाद भी हम कोई न कोई अनोखा काम करने में पीछे नहीं हटते। साल मेें 365 दिन होते हैं और हर दिन किसी न किसी को समर्पित कर दिया है। कोई मातृ दिवस तो कोई पितृ दिवस। कभी महिला दिवस मनाया जाता है तो कभी नारी सुरक्षा दिवस इत्यादि-इत्यादि। कहने का भावार्थ यह है कि हर दिन के नाम से शगूफा बना हुआ है जो उस दिन के आने पर छोड़ दिया जाता है।
ठीक इसी प्रकार 1 मई को मजदूर दिवस मानकर पूरी दुनिया में मजदूरों के प्रति श्र(ा जताई जाती है। इस दिन अलग-अलग देशों में, अलग-अलग प्रदेशों में ‘मजदूर-मजदूर भाई-भाई,’ ‘मजदूर एकता जिन्दाबाद’, ‘ आवाज दो हम एक है’, के नारों से आकाश गूंज जाया करता था। हर फैक्ट्री, हर औद्योगिक संस्थान इन नारों से अपनी एकता का परिचय मालिकों को देते थे। मजदूरों के प्रति सद्भावना दिखाते हुए विश्व मंच ने पहली मई को मजदूर दिवस घोषित कर दिया जिसका अभिप्राय मात्र मजदूर और मजदूर संगठनों में आपसी भाईचारा और मेलजोल बढ़ाने का उद्देश्य निहित था।
सच्चाई तो यह है कि भारतवर्ष में मजदूर दिवस मनाने की कोई भी परम्परा न कभी रही है और न है परन्तु दीवाली पर्व के ठीक अगले दिन विश्वकर्मा दिवस पर मजदूर तो क्या व्यापारी भी उस दिन छुट्टी करके अपने तराजू-बट्टै या इसके समान व्यापार में प्रयोग में लायी जाने वाली सामग्री कम्प्यूटर इत्यादि की पूजा करके उस दिन कोई काम नहीं करते। यदि देखा जाए तो यह मजदूर दिवस से बहुत बड़ा शांतिपूर्ण दिवस माना जा सकता है। श्रम शक्ति का देवता विश्वकर्मा ही माना जाता है परन्तु विदेशों में मजदूरों के मसीहा के नाम से जाने जाने वाले काल मार्क्स को इंगित करते हुए पाश्चात्य सभ्यता पहली मई को मजदूर दिवस के रुप में मनाती है और यही पाश्चात्य सभ्यता अब भारत समेत पूरे विश्व में अपनी जड़ें जमा चुकी है।
मजदूर शब्द मुख्य घारा से अलग समझा जाने लगा है और उसे दया का पात्र बनाकर उससे सहानुभूति सी दर्शायी जाने लगी है मानो वह किसी के साथ उठने-बैठने लायक ही न हो।
आज विश्व में मजदूर ज्यादा हैं और पूंजीपति कम फिर भी पूंजीपतियों का वर्चस्व है। इन पर मनमाने अत्याचार और शोषण कार्य धड़ल्ले से हो रहे हैं और हैरानी की बात यह है कि मजदूर वर्ग पर शोषण, अत्याचार, जबरदस्ती मजदूर संगठनों की मिली भगत से ही किया जा रहा है। यहां तक कि वेतन समझौतों में भी मजदूर संगठन प्रबंधन वर्ग से मिलकर मजदूर का शोषण करने में नहीं हिचकते। बैंकिग उद्योग में नवम्बर 1997 को हुए एक वेतन समझौते में प्रबंधन वर्ग और बैंक यूनियनों ने मंहगाई भत्ते दर का समावेश सेवानिवृत्त कर्मचारियों के साथ ऐसा कुछ किया जिससे सेवानिवृत्त कर्मचारियों को कुछ मिलने के बजाए बहुत कुछ खोना पड़ गया जो उनके हित के खिलाफ साबित हुआ। इस विषय पर कई मुकदमे अब भी चल रहे हैं। ऐसे में यह जरूरी लगता है कि दाल में कुछ न कुछ काला जरूर है। अब कितना काला है यह तो कहना मुश्किल है परन्तु कुछ न कुछ अवश्य है। कहीं कहीं तो मजदूर संगठन अपने निजी स्वार्थ के लिए समूची दाल को ही काला करने में नहीं हिचकते।
मजदूर वर्ग को मई दिवस पर किसी न किसी घोषणा के तहत राहत देने का लॉलीपाप देकर शांत करा दिया जाता है। बदलती हुई परिस्थितियों में मजदूर वर्ग भी बेबस है और जो मिल जाता है उसी में संतोष कर रहा है। कभी समय था कि पहली मई यानि मजदूर दिवस पर रैलियों द्वारा मजदूर अपनी एकता प्रदर्शन से अपने-अपने शहरों को हिला दिया करते थे परन्तु अब ‘मजदूर एकता जिन्दाबाद’ के गर्मजोशी के नारे बहुत ही कम सुनाई देते हैं। नारा लगाने वाले या नारा लगाने में मशहूर मजदूर रैलियों में जाने के बदले कुछ न कुछ ध्ंाधा करके तसल्ली कर लेते हैं। अधिकांश मजदूर तो अपनी-अपनी फैक्ट्रियों के बाहर या किसी पार्किंग के पास रिक्शा चलाते हुए मिल जायेंगे। मुम्बई के कपड़ा उद्योग ने पिछले दशकों में हुई हड़तालों और तालाबंदियों ने मजदूर वर्ग को तोड़कर रख दिया है। इनकी समस्यायों के निदान के प्रति सरकारी गैर जिम्मेदाराना रवैया इसका मुख्य कारण रहा है। दिल्ली, मुम्बई, अहमदाबाद, चेन्नई जैसे महानगरों के अलावा कई अन्य राज्यों में भी मजदूरों के प्रति सरकारी उदासीनता व्यापक रूप में देखने को आई है।
मजदूर यूनियनों के पदाधिकारी सिवाय अपना निजी स्वार्थ सि( करने के और कुछ नहीं कर रहे हैं। और तो और अमरीका जैसा सशक्त एवं बलशाली राष्ट्र जिस कदर मुल्कों पर आने-बहाने तबाही मचा रहा है उससे इनका शोषण बढ़ता ही जा रहा है। वियतनाम, अफगानिस्तान और अब इराक पर हुए अमरीकी अत्याचारों ने वहां के मजदूर वर्ग को दाने-दाने को मोहताज बना दिया है। अगर मजदूर दिवस के प्रति ऐसी आस्था बरकरार रही तो कोई बड़ी बात नहीं कि आने वाले समय में 1 मई को कैलेंडरों में मजदूर प्रतारणा दिवस के नाम पर इस दिन को अंर्तराष्ट्रीय स्तर पर याद किया जाने लगेगा। चंद रुपयों का लालच दिखाकर मजदूर नेता मजदूरों का जिस प्रकार शोषण कर रहे हैं, भेड़-बकरियों की तरह इक्ट्ठे करके अपने स्वार्थपूर्ति में जुटे रहते हैं उससे मजदूरों को कोई लाभ पहुंचे या न पहुंचे उनका शोषण अवश्य ही किया जा रहा है।
आर.एस.शर्मा ‘नागेश’
,बड़ी अजीब हो गई है दुनिया और अजीब हो गए हैं दुनिया के लोग। तमाशे करने मेें अब दुनिया वालों का कोई सानी नहीं रहा। इस वैज्ञानिक युग में, 21 वीं शताब्दी में हम चांद, मंगल, सूरज इत्यादि ग्रहों की गंभीरता से खोज-खबर लेने में जुटे हुए हैं परन्तु इसके बाद भी हम कोई न कोई अनोखा काम करने में पीछे नहीं हटते। साल मेें 365 दिन होते हैं और हर दिन किसी न किसी को समर्पित कर दिया है। कोई मातृ दिवस तो कोई पितृ दिवस। कभी महिला दिवस मनाया जाता है तो कभी नारी सुरक्षा दिवस इत्यादि-इत्यादि। कहने का भावार्थ यह है कि हर दिन के नाम से शगूफा बना हुआ है जो उस दिन के आने पर छोड़ दिया जाता है।
ठीक इसी प्रकार 1 मई को मजदूर दिवस मानकर पूरी दुनिया में मजदूरों के प्रति श्र(ा जताई जाती है। इस दिन अलग-अलग देशों में, अलग-अलग प्रदेशों में ‘मजदूर-मजदूर भाई-भाई,’ ‘मजदूर एकता जिन्दाबाद’, ‘ आवाज दो हम एक है’, के नारों से आकाश गूंज जाया करता था। हर फैक्ट्री, हर औद्योगिक संस्थान इन नारों से अपनी एकता का परिचय मालिकों को देते थे। मजदूरों के प्रति सद्भावना दिखाते हुए विश्व मंच ने पहली मई को मजदूर दिवस घोषित कर दिया जिसका अभिप्राय मात्र मजदूर और मजदूर संगठनों में आपसी भाईचारा और मेलजोल बढ़ाने का उद्देश्य निहित था।
सच्चाई तो यह है कि भारतवर्ष में मजदूर दिवस मनाने की कोई भी परम्परा न कभी रही है और न है परन्तु दीवाली पर्व के ठीक अगले दिन विश्वकर्मा दिवस पर मजदूर तो क्या व्यापारी भी उस दिन छुट्टी करके अपने तराजू-बट्टै या इसके समान व्यापार में प्रयोग में लायी जाने वाली सामग्री कम्प्यूटर इत्यादि की पूजा करके उस दिन कोई काम नहीं करते। यदि देखा जाए तो यह मजदूर दिवस से बहुत बड़ा शांतिपूर्ण दिवस माना जा सकता है। श्रम शक्ति का देवता विश्वकर्मा ही माना जाता है परन्तु विदेशों में मजदूरों के मसीहा के नाम से जाने जाने वाले काल मार्क्स को इंगित करते हुए पाश्चात्य सभ्यता पहली मई को मजदूर दिवस के रुप में मनाती है और यही पाश्चात्य सभ्यता अब भारत समेत पूरे विश्व में अपनी जड़ें जमा चुकी है।
मजदूर शब्द मुख्य घारा से अलग समझा जाने लगा है और उसे दया का पात्र बनाकर उससे सहानुभूति सी दर्शायी जाने लगी है मानो वह किसी के साथ उठने-बैठने लायक ही न हो।
आज विश्व में मजदूर ज्यादा हैं और पूंजीपति कम फिर भी पूंजीपतियों का वर्चस्व है। इन पर मनमाने अत्याचार और शोषण कार्य धड़ल्ले से हो रहे हैं और हैरानी की बात यह है कि मजदूर वर्ग पर शोषण, अत्याचार, जबरदस्ती मजदूर संगठनों की मिली भगत से ही किया जा रहा है। यहां तक कि वेतन समझौतों में भी मजदूर संगठन प्रबंधन वर्ग से मिलकर मजदूर का शोषण करने में नहीं हिचकते। बैंकिग उद्योग में नवम्बर 1997 को हुए एक वेतन समझौते में प्रबंधन वर्ग और बैंक यूनियनों ने मंहगाई भत्ते दर का समावेश सेवानिवृत्त कर्मचारियों के साथ ऐसा कुछ किया जिससे सेवानिवृत्त कर्मचारियों को कुछ मिलने के बजाए बहुत कुछ खोना पड़ गया जो उनके हित के खिलाफ साबित हुआ। इस विषय पर कई मुकदमे अब भी चल रहे हैं। ऐसे में यह जरूरी लगता है कि दाल में कुछ न कुछ काला जरूर है। अब कितना काला है यह तो कहना मुश्किल है परन्तु कुछ न कुछ अवश्य है। कहीं कहीं तो मजदूर संगठन अपने निजी स्वार्थ के लिए समूची दाल को ही काला करने में नहीं हिचकते।
मजदूर वर्ग को मई दिवस पर किसी न किसी घोषणा के तहत राहत देने का लॉलीपाप देकर शांत करा दिया जाता है। बदलती हुई परिस्थितियों में मजदूर वर्ग भी बेबस है और जो मिल जाता है उसी में संतोष कर रहा है। कभी समय था कि पहली मई यानि मजदूर दिवस पर रैलियों द्वारा मजदूर अपनी एकता प्रदर्शन से अपने-अपने शहरों को हिला दिया करते थे परन्तु अब ‘मजदूर एकता जिन्दाबाद’ के गर्मजोशी के नारे बहुत ही कम सुनाई देते हैं। नारा लगाने वाले या नारा लगाने में मशहूर मजदूर रैलियों में जाने के बदले कुछ न कुछ ध्ंाधा करके तसल्ली कर लेते हैं। अधिकांश मजदूर तो अपनी-अपनी फैक्ट्रियों के बाहर या किसी पार्किंग के पास रिक्शा चलाते हुए मिल जायेंगे। मुम्बई के कपड़ा उद्योग ने पिछले दशकों में हुई हड़तालों और तालाबंदियों ने मजदूर वर्ग को तोड़कर रख दिया है। इनकी समस्यायों के निदान के प्रति सरकारी गैर जिम्मेदाराना रवैया इसका मुख्य कारण रहा है। दिल्ली, मुम्बई, अहमदाबाद, चेन्नई जैसे महानगरों के अलावा कई अन्य राज्यों में भी मजदूरों के प्रति सरकारी उदासीनता व्यापक रूप में देखने को आई है।
मजदूर यूनियनों के पदाधिकारी सिवाय अपना निजी स्वार्थ सि( करने के और कुछ नहीं कर रहे हैं। और तो और अमरीका जैसा सशक्त एवं बलशाली राष्ट्र जिस कदर मुल्कों पर आने-बहाने तबाही मचा रहा है उससे इनका शोषण बढ़ता ही जा रहा है। वियतनाम, अफगानिस्तान और अब इराक पर हुए अमरीकी अत्याचारों ने वहां के मजदूर वर्ग को दाने-दाने को मोहताज बना दिया है। अगर मजदूर दिवस के प्रति ऐसी आस्था बरकरार रही तो कोई बड़ी बात नहीं कि आने वाले समय में 1 मई को कैलेंडरों में मजदूर प्रतारणा दिवस के नाम पर इस दिन को अंर्तराष्ट्रीय स्तर पर याद किया जाने लगेगा। चंद रुपयों का लालच दिखाकर मजदूर नेता मजदूरों का जिस प्रकार शोषण कर रहे हैं, भेड़-बकरियों की तरह इक्ट्ठे करके अपने स्वार्थपूर्ति में जुटे रहते हैं उससे मजदूरों को कोई लाभ पहुंचे या न पहुंचे उनका शोषण अवश्य ही किया जा रहा है।